उदास अकेले बच्चों को देखते रहना इस सदी के सबसे त्रासद दृश्यों में एक रहा

डंके की चोट पर 'सिर्फ सच'

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उदास अकेले बच्चों को देखते रहना इस सदी के सबसे त्रासद दृश्यों में एक रहा

उदास अकेले बच्चों को देखते रहना इस सदी के सबसे त्रासद दृश्यों में एक रहा


ध्रुव गुप्त 
कोरोना-काल में पिछले एक साल से अपने घरों की बालकनी या दरवाजों के पीछे बैठे उदास, अकेले बच्चों को देखते  रहना इस सदी के सबसे त्रासद दृश्यों में एक रहा है। वैसे तो इस महामारी ने हम सबसे बहुत कुछ छीना है, लेकिन इस बदलाव के सबसे मासूम भुक्तभोगी हमारे बच्चे रहे हैं। उनका बचपन उनसे छिन गया है। अपने हमउम्र दोस्त उनके लिए पराये और अछूत हो चले हैं। खेलते-कूदते बच्चों के शोर के बगैर शहरों की गलियां और गांवों के रास्ते सूने हैं।

उनके स्कूल और खेल के मैदान साल भर से बंद हैं। देश में जिस तरह कोरोना के नए-नए रूपरंग के विस्फोट देखने में आ रहे हैं, उसमें निकट भविष्य में यह स्थिति बदलने  की कोई सूरत नज़र नहीं आ रही। स्कूल खोलकर सरकार या ख़ुद अभिभावक बच्चों के जीवन से खेलने का खतरा शायद ही मोल लें। बीच-बीच में क्लास रूम में छह-छह फीट की दूरी पर डेस्क लगाने और मास्क तथा डिस्टेनसिंग की शर्तों के साथ बच्चों के स्कूल खोलने की सलाह आती रही है। अपने देश में स्कूलों में बच्चों की भीड़ के मद्देनजर ऐसा करना शायद संभव नहीं है। फिर बच्चों को मास्क पहनाना क्या इतना ही सहज है?

टीचर के क्लास से बाहर निकलते या छुट्टी की घंटी बजते ही वे मास्क नोच कर फेंक देंगे। स्कूल के खेल के मैदान बंद हुए तो वे क्लास को ही खेल का मैदान बना डालेंगे। ऑनलाइन क्लासेज का बहुत शोर है, लेकिन यह स्कूली शिक्षा का विकल्प कतई नहीं हो सकता। इससे बच्चों के व्यक्तित्व और मानस का एकहरा विकास ही संभव है। उन्हें घर के प्यार और किताबी शिक्षा के साथ शिक्षकों की फटकार भी चाहिए, दोस्तों के साथ प्यार और लड़ाई-झगड़े भी, खेल के मैदान भी और गलियों की धूल-मिट्टी भी। दुनिया भर में यह चिंता गहरी होती जा रही है कि दुनिया के बंधन-मुक्त होने तक अपने उन्मुक्त संसार से कटे हमारे बच्चे कहीं अकेले, उदास और असामाजिक तो नहीं हो चुके होंगे। 
(लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं)