ऐसा स्कूल जिसका क्लासरूम है फ्लाईओवर पत्थर के नीचे...

डंके की चोट पर 'सिर्फ सच'

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ऐसा स्कूल जिसका क्लासरूम है फ्लाईओवर पत्थर के नीचे...

नई दिल्ली। ऐसे में आज हम आपको एक ऐसा स्कूल दिखाने जा रहे हैं जो दिखने में भले साधारण से भी कम हो लेकिन स्कूल की सोच बड़ी बड़ी ईमारतों वाले स्कूल से भी कई ज्यादा बड़ी हैं. दरअसल ये अनोखा स्कूल पूर्वी दिल्ली के यमुना खादर इलाके में हैं. इसकी ख़ास बात ये ह


ऐसा स्कूल जिसका क्लासरूम है फ्लाईओवर पत्थर के नीचे...
नई दिल्ली। ऐसे में आज हम आपको एक ऐसा स्कूल दिखाने जा रहे हैं जो दिखने में भले साधारण से भी कम हो लेकिन स्कूल की सोच बड़ी बड़ी ईमारतों वाले स्कूल से भी कई ज्यादा बड़ी हैं.

दरअसल ये अनोखा स्कूल पूर्वी दिल्ली के यमुना खादर इलाके में हैं. इसकी ख़ास बात ये हैं कि यहाँ बच्चे फ्लाईओवर के निर्माण के लिए रखे स्लैब में पढ़ते हैं. यहाँ रोजाना झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले करीब 200 बच्चे पढ़ाई करते हैं.

इस अनोखे स्कूल को सत्येंद्र पाल नाम का एक युवक चलाता हैं. सत्येंद्र खुद बीएससी फाइनल ईयर का स्टूडेंट हैं. लेकिन वो अपने खाली समय में इन गरीब बच्चों को पढ़ाने का काम करता हैं. वो ये शिक्षा बच्चों को मुफ्त में देता हैं.
ऐसा स्कूल जिसका क्लासरूम है फ्लाईओवर पत्थर के नीचे...

23 साल के सत्येन्द्र रोजाना फ्लाईओवर बनाने के लिए यमुना नदी के किनारे रखे पत्थरों के एक स्लैब में ये स्कूल लगाता हैं. वे ये काम साल 2015 से कर रहे हैं. शुरुआत में उनके पास सिर्फ 5 ही विद्यार्थी थे लेकिन धीरे धीरे कर इसकी संख्या 200 तक पहुँच गई. अब टीचिंग के लिए सत्येन्द्र के साथ उनके दो दोस्त पन्नालाल और कंचन भी जुड़ गए हैं.

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार सत्येन्द्र बताते हैं कि उनकी जिंदगी में एक समय ऐसा आया था जब उन्हें गरीबी के चलते अपनी दो तीन साल की पढाई छोड़ना पड़ गई थी. हालाँकि उन्होंने हार नहीं मानी और दोबारा कोशिश करते हुए पढ़ाई आगे बढ़ाइ. सत्येन्द्र नहीं चाहते कि उनकी तरह इन गरीब बच्चों की पढ़ाई भी पैसो की तंगी की वजह से छूट जाए. इसलिए उन्होंने ये अनोखी पहल शुरू की हैं जिसका नाम ‘पंचशील शिक्षण संस्थान’ रखा हैं. सत्येन्द्र वैसे तो उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के रहने वाले हैं लेकिन अपनी लाइफ को बेहतर बनाने के लिए 2010 में दिल्ली शिफ्ट हो गए थे.

वे बताते हैं कि मैंने इस इलाके के बच्चों को देखा हैं कि वे स्कूल नहीं जाते थे. इनमे से कुछ सरकारी स्कूल में दाखला लिए भी थे लेकिन स्कूल घर से दूर होने की वजह से वे नहीं जाते हैं. एक और बात ये हैं कि यहाँ का माहोल खराब होने की वजह से कोई भी बच्चा अपनी पढ़ाई पूरी नहीं करता हैं. वे 8वी या 9वी के बाद ही स्कूल छोड़ देते हैं. मैं ये सब बदलना चाहता था इसलिए ये पहल शुरू की. उन्होंने शुरुआत में झुग्गियों से बच्चे को खोज खोज कर लाए और पढ़ना स्टार्ट किया. बाद में उनकी लगन देख अन्य माता पिता भी बच्चों को सत्येन्द्र के स्कूल में भेजने लगे. इनके इस स्कूल का रजिस्ट्रेशन तो नहीं हैं लेकिन ये बच्चो को शिक्षा से वंचित नहीं रखना चाहते हैं.