मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...

डंके की चोट पर 'सिर्फ सच'

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मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...

ध्रुव गुप्त भारतीय उपमहाद्वीप के महानतम गायकों में से एक मेहदी हसन ने अपनी भारी, गंभीर आवाज़ में मोहब्बत और दर्द को जो गहराई दी थी, वह ग़ज़ल गायिकी के इतिहास की एक दुर्लभ घटना थी। शहंशाह-ए-ग़ज़ल मेहदी हसन को सुनना और महसूस करना हमेशा एक विरल अनुभव रहा


मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...
ध्रुव गुप्त
भारतीय उपमहाद्वीप के महानतम गायकों में से एक मेहदी हसन ने अपनी भारी, गंभीर आवाज़ में मोहब्बत और दर्द को जो गहराई दी थी, वह ग़ज़ल गायिकी के इतिहास की एक दुर्लभ घटना थी। शहंशाह-ए-ग़ज़ल मेहदी हसन को सुनना और महसूस करना हमेशा एक विरल अनुभव रहा है। लता मंगेशकर ने उनकी ग़ज़लों को 'ईश्वर की आवाज़' कहा है।

मेहदी हसन ने ठुमरी गायक के रूप में रेडियो पाकिस्तान से 1957 में अपनी गायकी की शुरूआत की थी, लेकिन उन्हें शोहरत मिली अपनी ग़ज़लों की वज़ह से। ग़ज़ल के गंभीर श्रोताओं ने उन्हें हाथो हाथ लिया और देखते-देखते वे श्रेष्ठ ग़ज़ल गायक के रूप में स्थापित हो गए। उनकी यह लोकप्रियता उन्हें फिल्मों की ओर ले गई। पाकिस्तानी फिल्मों में गाए अपने सैकडों बेहतरीन गीतों ने उन्हें अवाम के दिलों पर हुकूमत बख्श दी।

वे भारत और पाक में समान रूप से लोकप्रिय थे। पाकिस्तान सरकार ने उन्हें 'तमगा-ए-इम्तियाज़' और भारत सरकार ने 'के.एल. सहगल संगीत शहंशाह सम्मान' से नवाज़ा था। उनकी एक आख़िरी तमन्ना थी लता जी के साथ ग़ज़लों का एक अलबम करने की। रिकॉर्डिंग की तमाम तैयारिया मुकम्मल थी, लेकिन ज़िंदगी के आख़िरी सालों में गंभीर बीमारी की वज़ह से उनका यह सपना अधूरा रह गया।

मेहदी हसन के गाए कुछ कालजयी गीत, ग़ज़लें और नज़्में हैं - ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं, बहुत खूबसूरत है मेरा सनम, नवाजिश करम शुक्रिया मेहरबानी, ख़ुदा करे कि मोहब्बत में वो मक़ाम आए, किया है प्यार जिसे हमने ज़िंदगी की तरह, अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें, रंज़िश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ, पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है, बात करनी मुझे मुश्क़िल कभी ऐसी तो न थी, भूली बिसरी चंद उम्मीदें, यारों किसी क़ातिल से कभी प्यार न मांगो, मोहब्बत करने वाले कम न होंगे, मैं ख़्याल हूं किसी और का, हमें कोई ग़म नहीं था गमे आशिक़ी से पहले, एक बस तू ही नहीं मुझसे खफ़ा हो बैठा, एक बार चले आओ, ये धुआं सा कहां से उठता है, दिल में अब यूं तेरे भूले हुए ग़म आते हैं, आए कुछ अब्र कुछ शराब आए आदि। इस महान फ़नकार की पुण्यतिथि (13 जून) पर हमारी विनम्र श्रद्धांजलि !

गरचे दुनिया ने ग़म-ए-इश्क़ को बिस्तर न दिया
तेरी आवाज़ के पहलू में भी नींद आती है ! (ध्रुव गुप्त)