150 बुर्जुगों की रोज सेवा करती हैं निशिता राजपूत!

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150 बुर्जुगों की रोज सेवा करती हैं निशिता राजपूत!

निशिता राजपूत गुजरात के वलसाड़ की रहने वाली हैं। निशिता गरीब बच्चों और उन बुजुर्गों की मदद करती हैं जिनका इस दुनिया में देखभाल करने वाला कोई नहीं है। निशिता रोज शहर के उन अकेले 155 बुजुर्गों तक खाना पहुंचाती हैं, जिनका ख्याल रखने वाला यहां कोई नहीं


150 बुर्जुगों की रोज सेवा करती हैं निशिता राजपूत!
निशिता राजपूत गुजरात के वलसाड़ की रहने वाली हैं। निशिता गरीब बच्चों और उन बुजुर्गों की मदद करती हैं जिनका इस दुनिया में देखभाल करने वाला कोई नहीं है। निशिता रोज शहर के उन अकेले 155 बुजुर्गों तक खाना पहुंचाती हैं, जिनका ख्याल रखने वाला यहां कोई नहीं है। यह ख्याल उन्हें एक बुजुर्ग महिला को सूखा भात खाते देख आया था।

निशिता का कहना है कि- मैं ऐसे बुजुर्गों के आसपास लोग ढूंढती हूं, जो पैसे लेकर समय पर उनके घरों तक खाना पहुंचा दें। इसके अलावा मैं ऐसे लोगों के संपर्क में रहती हूं, जो अपने जन्मदिन पर केक दान करते हैं। मैं अपने डॉक्यूमेंट्स से उन बच्चों का नाम निकालती हूं, जिनका उसी दिन जन्मदिन होता है। मैंने पीजी की पढ़ाई कुछ ही वक्त पहले पूरी की है, पर समाज सेवा का मेरा करियर तो कब का तय हो चुका है।

7 साल पहले की बात है। उस वक्त मेरी उम्र मुश्किल से 19 साल रही होगी। मैं बारहवीं की परीक्षा दे चुकी थी और आगे कॉमर्स की पढ़ाई के लिए तैयारी कर रही थी। गर्मियों की छुट्टियों में हम कई अनाथालयों में बेसहारा बच्चों से मिलने जाते थे। हमें अनुमति थी कि हम बच्चों को अपने घर लाकर उन्हें उस माहौल से परिचित कराएं, जो उन्हें किसी गोद लेने वाले परिवार के घर में देखने को मिलेगा।

मां-बाप की अच्छी आदतें बच्चों की जिंदगी पर बहुत सकारात्मक असर करती हैं। मेरे साथ भी ऐसा हुआ। हमारे घर की परंपरा रही है कि हम कोई भी त्योहार घर के बजाय वृद्धाश्रम, अनाथालय या ऐसी जगहों पर जाकर मनाते हैं, जहां के लोगों के लिए त्योहार खुशी नहीं, बल्कि आंसू लेकर आते हैं। ऐसे मौकों पर हम सपरिवार उनके आंसू कम करने की कोशिश करते हैं। उनकी जरूरतों को समझते हैं और उनके साथ वक्त बिताते हैं। मैं बचपन से ही समाज के ऐसे वंचितों के प्रति बहुत संवेदनशील रही हूं।
150 बुर्जुगों की रोज सेवा करती हैं निशिता राजपूत!

मैंने घरों में काम करने वाली महिलाओं के साथ उनके कुछ ऐसे बच्चों को देखा, जो स्कूल नहीं जाते थे। शायद वे स्कूल जा भी नहीं सकते थे, क्योंकि उनकी गरीबी उन्हें इसकी इजाजत नहीं देती थी। समाज के प्रति संवेदनशील तो मैं थी ही, मेरे दिमाग में ऐसे बच्चों को स्कूल पहुंचाने का ख्याल आया। दरअसल मैं एक ऐसी योजना के बारे में सोच रही थी, जिससे आगे चलकर हजारों गरीब बच्चों की जिंदगी बदल सकती थी!

पिता की मदद से मैंने शुरुआत में करीब 351 बच्चों की पढ़ाई का जिम्मा उठाया। इसके लिए मैंने उन सभी बच्चों की फीस जमा कर दी। दरअसल ऐसे कामों के लिए पैसे देने वालों की कमी नहीं है, लेकिन पारदर्शिता न होने के कारण लोग पैसे देन में हिचकिचाते हैं, लेकिन मैं खुद पैसे ना लेकर बच्चों के फीस के नाम पर सीधे स्कूल या बच्चों के परिवार वालों के बैंक खातों में जमा होने वाले चेक स्वीकार करती हूं।

उसके बाद जिस बच्चे को सहायता मिली है, उसकी पूरी जानकारी डोनेट करने वालों से शेयर करती हूं। इस तरह लोगों का मुझ पर भरोसा बढ़ता गया और देखते ही देखते देश-विदेश से मदद मिलने लगी। नतीजतन मैंने अब तक दस हजार से अधिक संख्या में उन गरीब बच्चों को स्कूल पहुंचा दिया है, जो सिर्फ पैसों की वजह से नहीं पढ़ पाते।