स्त्रियां खुद भी अपने भीतर की दुर्गा को पहचानने और उसका इस्तेमाल करना सीखे

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स्त्रियां खुद भी अपने भीतर की दुर्गा को पहचानने और उसका इस्तेमाल करना सीखे

ध्रुव गुप्त देवी दुर्गा की आराधना के नौ-दिवसीय आयोजन शारदीय नवरात्र का आरम्भ हो गया है। देवी दुर्गा के स्वरुप के संबंध में हमारे देश में अलग-अलग मान्यताएं हैं। पौराणिक साहित्य में उन्हें आदिशक्ति माना गया है। ऐसी दिव्य शक्ति जिसने कई बार असुर शक्ति


स्त्रियां खुद भी अपने भीतर की दुर्गा को पहचानने और उसका इस्तेमाल करना सीखेध्रुव गुप्त 
देवी दुर्गा की आराधना के नौ-दिवसीय आयोजन शारदीय नवरात्र का आरम्भ हो गया है। देवी दुर्गा के स्वरुप के संबंध में हमारे देश में अलग-अलग मान्यताएं हैं। पौराणिक साहित्य में उन्हें आदिशक्ति माना गया है। ऐसी दिव्य शक्ति जिसने कई बार असुर शक्ति के समक्ष कमजोर पड़े देवताओं की रक्षा की और असुरों का विनाश कर देवताओं के स्वर्ग को सुरक्षित किया। वे हिन्दुओं के शाक्त सम्प्रदाय की प्रमुख देवी है जिन्होंने माया शक्ति से सावित्री, लक्ष्मी और पार्वती के तीन रूप धरकर क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिव से विवाह किया और सृष्टि के निर्माण और संचालन में उनका हाथ बंटाया था। असुरराज महिषासुर का संहार देवी दुर्गा का सबसे बड़ा पराक्रम माना जाता है। पुराणों में महिषासुर को शान्ति तथा धर्म पर आघात करने वाली तामसिक शक्ति के रूप में देखा गया है।

आधुनिक चिंतकों का एक वर्ग है जो असुरराज महिषासुर को खलनायक नहीं, आर्यों की संस्कृति और विस्तारवादी नीति का प्रबल विरोधी मानता है। प्राचीन भारत में हजारों साल तक चले देवासुर संग्राम अथवा आर्य या देव और अनार्य या असुर संस्कृतियों के टकराव ने असंख्य लोगों की बलि ली थी। देवी दुर्गा और महिषासुर की कहानी के पीछे यही संघर्ष है। असुरों के महाप्रतापी नायक महिषासुर से अपना साम्राज्य खतरे में देखकर देवताओं ने उसे हराने की कोशिशें की, लेकिन वे असफल रहे। अंततः उन्होंने वीरांगना दुर्गा का आह्वान कर महिषासुर से मुक्ति पाई। इस युद्ध में बड़े पैमाने पर असुरों का नरसंहार हुआ था। दशहरा इसी नरसंहार का उत्सव है। महिषासुर के पराजित समर्थकों ने इस नरसंहार के पांच दिनों बाद शरद पूर्णिमा को एक विशाल सभा आयोजित कर अपनी संस्कृति तथा स्वाभिमान को जीवित रखने का संकल्प किया था। इसी संकल्प की याद में असुर जनजाति के लोग आज भी दशहरा के पांच दिनों बाद शरद पूर्णिमा को ‘महिषासुर शहादत दिवस’ के तौर पर मनाते हैं। हमारा देश असंख्य संस्कृतियों और आस्थाओं के बीच लंबे संघर्ष और समन्वय की कोशिशों से बना है। संस्कृतियों की यही विविधता उसका सौंदर्य है।आधुनिक विचारक देवी दुर्गा बनाम महिषासुर का विवाद दो व्यक्तियों या दैवी तथा पाशविक शक्तियों के बीच का नहीं, दो प्राचीन संस्कृतियों के बीच का टकराव मानते हैं।

इन दोनों विचारों के इतर मानवतावादी विचारकों और साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग है जिसके अनुसार नवरात्र स्त्री-शक्ति के प्रति सम्मान का प्रतीकात्मक आयोजन है। सम्मान उस सृजनात्मक शक्ति, उस अथाह प्यार, ममता और करुणा का जो कभी मां के रूप में व्यक्त होता है, कभी बहन-बेटी, कभी मित्र और कभी पत्नी के रूप में। दुर्गा पूजा, गौरी पूजा और काली पूजा स्त्री-शक्ति के तीन विभिन्न आयामों के सम्मान के सांकेतिक आयोजन हैं। काली स्त्री का आदिम, अनगढ़ स्वरुप है। गौरी या पार्वती स्त्री का सामाजिक तौर पर नियंत्रित, गृहस्थ, ममतालु रूप है जो सृष्टि का जनन भी करती है और पालन भी। दुर्गा स्त्री के आदिम और गृहस्थ रूपों के बीच की वह स्थिति है जो परिस्थितियों के अनुरुप करूणामयी भी है और संहारक भी। कालान्तर में इन प्रतीकों के साथ असंख्य मिथक जुड़ते चले गए और इस आयोजन ने अपना उद्देश्य खोकर विशुद्ध कर्मकांड का रूप ले लिया। स्त्री के सांकेतिक रूप आज हमारे आराध्य हैं और जिस स्त्री के सम्मान के लिए ये तमाम प्रतीक गढ़े गए, वह आज भी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तौर पर पुरूष अहंकार के पैरों तले रौंदी जा रही हैं।

स्त्रियों के प्रति हमारे विचारों और कर्म में विरोधाभास हमेशा से हमारी संस्कृति का संकट रहा है। स्त्री एक साथ स्वर्ग की सीढ़ी भी है और नर्क का द्वार भी। घर की लक्ष्मी भी और 'ताड़न' की अधिकारी भी। मनुष्यता की जननी भी और वेश्यालयों में बिकने वाली देह भी। जब तक देवियों की काल्पनिक मूर्तियों की जगह जीवित देवियों का सम्मान हम नहीं सीखते, नवरात्रि के कर्मकांड का कोई अर्थ नहीं ! यह आयोजन सार्थक तब होगा जब पुरूष स्त्रियों के विरुद्ध हजारों सालों से जारी भ्रूण-हत्या, लैंगिक भेदभाव, बलात्कार, उत्पीडन और उन्हें वस्तु समझने की गंदी मानसिकता बदलें और स्त्रियां खुद भी अपने भीतर की दुर्गा को पहचानने और उसका इस्तेमाल करना सीखे !
(लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं)