मजदूर दिवसः याद आया रामदेव बाबू का जुझारूपन!

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मजदूर दिवसः याद आया रामदेव बाबू का जुझारूपन!


मजदूर दिवसः याद आया रामदेव बाबू का जुझारूपन!


डॉ. प्रभात ओझा

अभी पिछले ही महीने की 14 तारीख को वे हमसे विदा हुए। इस अर्थ में उन्हें भूलने का कोई मतलब ही नहीं है। फिर भी मजदूर दिवस आया तो उनके जुझारू जीवन को रखना स्वाभाविक है। एशिया की सबसे बड़ी एल्यूमिनियम कंपनी हिंडाल्को की कहानी उसके प्रथम मजदूर नेता रामदेव सिंह के बिना पूरी नहीं होती। प्रथम इसलिए कि कंपनी शुरू हुई और उसी के साथ उसमें काम करने वाले मजदूरों की मजबूरियां भी। ऐसे में उनके लिए रामदेव बाबू ने आवाज उठायी। वह आवाज उनकी जिद और दृढ़ संकल्प की कहानियों से भरी है।

रेणूकूट हिंडालको जब शुरू हुआ, आसपास वीरान था। मजदूरों ने काम शुरू किया तो बाहर जीवन की सामान्य सुविधाओं का मिलना भी मुश्किल था। सबसे बड़ी मुश्किल कार्य क्षेत्र में भी दिखने लगी। चिमनियों के बीच काम करने वालों को लिए सामान्य उपकरण तो छोड़िए, हेलमेट और धातु वाले अन्य शरीर-रक्षक उपकरण तक नहीं थे। इन साधनों के साथ बाहर बाजार की शुरुआत आसान नहीं थी। आज के कारखाने और व्यवस्थित बाजार को देखते हुए तब के कष्ट की कल्पना नहीं की जा सकती। यह सब सुलभ कराने में रामदेव बाबू के संघर्ष की कथा लंबी हो सकती है।

फिर भी एक तथ्य पूरी कहानी का सार है कि वे 14 साल तक नौकरी से बाहर रखे गये। इन 14 वर्षों को राम की तरह इसे रामदेव का भी बनवास कहा जा सकता है। उन्होंने इस दौरान ट्रेड यूनियन और उसकी गतिविधि जारी रखने के लिए मजदूर विरोधी राक्षसों से संघर्ष किया। मजदूरों के बीच रोशनी लाने वाले और बिजली बत्तियों से चमचमाता बाजार बसाने वाले रामदेव सिंह का जीवन टीन शेड में ही गुजरा। वह कभी छप्पर वाला मकान भी नहीं बना पाए। जिनके बारे में मशहूर है कि हिंडाल्को में सैकड़ों योग्य लोगों की नौकरी उनके एक बार कह देने से लग गई, अपने तीन बेटे और बेटी की नौकरी वह नहीं लगवा पाए।

बिहार के सिवान जिले के कौंसड़ गाँव में जन्मे रामदेव सिंह एक सामान्य किसान के बेटे थे। 18 वर्ष की वय में परिवार का सहयोग करने के लिये नौकरी ढूंढते हुए वह गोरखपुर चले आए। एक कंपनी में सुपरवाइजर का काम मिला, जिसमें उन्हें 70 रुपये तनख्वाह के मिलने लगे। वह अधिक कमाई के लिये झरिया के शिवपुर कोइलरी में आ गए। जब उनकी मां को पता चला कि कोलफील्ड में काम करने के लिए जान जोखिम में डालना पड़ता है, तो उन्हें वहाँ से नौकरी छोड़ने को कहा। फिर जेके नगर होते हुए उनका रुख रेनूकूट की ओर हुआ। वर्ष 1961-62 के बीच उनकी नौकरी हिंडाल्को कारखाने के पॉट रूम में लगी, जहां आग उगलती भट्ठियाँ और उबलते बॉयलर्स होते थे। ऊपर से तनख्वाह और सुविधाएं नाम मात्र की थीं। अधिकारियों की डाँट-फटकार से भी वहाँ के मजदूर त्रस्त थे। आवास के नाम पर एक टीन शेड के नीचे 30-30 मजदूर भेड़-बकरियों के जैसे रहा करते थे। यह सब देख उबलते बॉयलर्स की तरह युवा रामदेव के अंदर का क्रांतिकारी उबल पड़ा। वह सीधे फोरमैन से जाकर मजदूरों की समस्या के लिये भिड़ गए। उन लोगों ने नौकरी से निकालने की धमकी दी तो वह और तन गए। उनके खिलाफ वार्निंग लेटर आया, जिसे उन्होंने अधिकारियों के सामने सुलगते सिगरेट से जला दिया।

यह सब साथी मजदूरों के लिये टॉनिक की घूंट थी, कई अमरीकी कर्मचारी भी उनके समर्थन में आए। कुछ हफ्तों में रामदेव सिंह ‘नेता रामदेव’ बन गए थे। मैनेजमेंट ने एक दिन उन्हें नौकरी से निकाल दिया। जब वह अगले दिन गेट पर आए तो बीसियों सिक्योरिटी गार्ड उनका रास्ता रोकने को खड़े थे। मजदूरों की भीड़ गेट पर ही धरने पर बैठ गई। रामदेव सिंह जिंदाबाद के नारे लगे। मजदूरों की मांग थी कि रामदेव अगर नौकरी नहीं करेंगे तो हम भी काम नहीं करेंगे। मैनेजमेंट झुक गया और चेतावनी देकर उन्हें वापस काम पर रख लिया। हालांकि उन्होंने इतने बड़े समर्थन के बाद मजदूरों की लड़ाई और तेज कर दी। इस तरह हिंडाल्को के मजदूरों को अपना पहला मजदूर नेता मिल गया था। कुछ महीनों बाद ही उन्हें नौकरी से फिर निकाल दिया गया। उनको जान से मारने की कई बार साजिश हुई। उनके सहयोगियों को भी एक-एक कर झूठे मामलों में फंसा कर जेल भेजा जाने लगा। रामदेव सिंह को भी कई बार जेल जाना पड़ा। वह हिंडाल्को से बाहर थे लेकिन वहाँ के मजदूरों के लिये लड़ते रहे। उनके पीछे गुप्तचरों की टीम लगी रहती थी, इसलिए उन्हें देश की आजादी के क्रांतिकारियों की तरह ठिकाना बदल-बदल कर योजनाएं बनानी पड़ती थीं।

हड़ताल पर हड़ताल होते गए, नेता रामदेव सिंह का नाम पहले राज्य के राजनीति में फिर केंद्र की राजनीतिक गलियारों तक पहुँच गया। प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह से रामदेव सिंह ने कई बार मीटिंग की। केन्द्रीय मंत्री रहे राजनारायण और प्रभुनारायण तो उनके संघर्ष के साथी रहे। उनका भरपूर समर्थन हमेशा मिलता रहा। वे हिंडालको मजदूरों और स्थानीय लोगों में इतने लोकप्रिय हो चुके थे कि लोग उन्हें राम और हिंडालको प्रबंधन को रावण की संज्ञा देती रही। वे वहां के भोजपुरी क्षेत्र और लोक जीवन में “आदमी में नउवा, पंछिन में कौआ और नेतन में रामदेउवा” (आदमियों में नाऊ, पंक्षियों में कौआ और नेताओं में रामदेव) के रूप में याद किए जाते रहे।

वह हिंडाल्को में पॉट रूम में काम करने के दौरान मजदूरों की दयनीय हालत को देखकर मैनेजमेंट पर हमेशा करारा प्रहार किया करते थे। उन्होंने ‘राष्ट्रीय श्रमिक संघ’ की स्थापना की, जो आज भी सक्रिय है। उस समय रेनूकूट के सड़क के दोनों किनारों पर एक भी झोपड़ी नहीं थी, एक भी दुकानदार नहीं था...सिर्फ बेहया (जंगली झाड़ी) के जंगल थे। रामदेव सिंह ने झोपड़ियाँ बनवाईं, दुकानें खुलवाईं और व्यापार मण्डल के अध्यक्ष बने। उन्होंने बिड़ला मैनेजमेंट के खिलाफ संघर्ष किया, जिसके कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। रामदेव सिंह ने जीवन का पहला आंदोलन साल 1963 में एक रात 11 बजे शुरू किया जब उन्होंने हिंडाल्को में तीन दिन की हड़ताल करा दी। फिर दूसरी हड़ताल 12 अगस्त 1966 में हुई। उसका असर ये हुआ कि रामदेव बाबू समेत 318 लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया।

उन्हें बहुत प्रलोभन दिया गया लेकिन उनके जमीर का कोई मोल नहीं लगा सका। साल 1977 में उनके साथी और प्रसिद्ध राजनेता रहे राजनारायण ने उन्हें पुनः हिंडाल्को जॉइन कराया। इस दरम्यान उनका परिवार, उनके बच्चे सब मुफलिसी में जीवन काटते रहे। फिर नौकरी करते हुए भी हिंडाल्को के प्रेसिडेंट को ललकारते रहते थे। हिंडाल्को की मर्जी के खिलाफ रामदेव सिंह ने रेनूकूट के असहाय दुकानदारों को भी बसाया। इस तरह बाबू रामदेव सिंह मजदूरों के साथ-साथ, व्यापारियों और जनता के भी नेता थे।

रेनुकूट से सटे पिपरी पुलिस स्टेशन के पास रामदेव सिंह का निवास स्थान था, जहां अक्सर भारतीय राजनीति के बड़े राजनेता राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, राजनारायण, चौधरी चरण सिंह, जॉर्ज फर्नांडीज़, विश्वनाथ प्रताप सिंह चंद्रशेखर, लालू प्रसाद यादव और वर्तमान केन्द्रीय मंत्री राजनाथ सिंह आदि का आना-जाना हुआ करता था। यहीं राजनीतिक विश्लेषण होते। जेपी आंदोलन में भी सक्रिय रामदेव बाबू का राजनीतिक जीवन हमेशा उन्हें परिवार से दूर ही रखे रहा।

एक बार की बात है बुजुर्ग हो रहे रामदेव सिंह की तबीयत गंभीर हुई तो उनके बेटे उन्हें लखनऊ के अस्पताल लेकर गए। इसकी सूचना यूपी के मुख्यमंत्री रहे रामनरेश यादव को मिली। वह आनन-फानन उनसे मिलने आए। वह रामदेव बाबू को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। उनका लगाव रामदेव सिंह से आजीवन रहा। ये सारे परिचय मजदूरों और आम लोगों के हित में लगाने का गजब का उनका हुनर था। उनका निधन 87 वर्ष की उम्र में हुआ और जीवन के बड़े हिस्से को उन्होंने इसी लोकहित में लगा दिया।

(लेखक, स्वतंत्र पत्रकार और इंदिरा गांधी कला केंद्र के मीडिया सेंटर से भी जुड़े हैं।)