सिद्धांतविहीन सत्ता का समापन !

डंके की चोट पर 'सिर्फ सच'

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सिद्धांतविहीन सत्ता का समापन !


सिद्धांतविहीन सत्ता का समापन !


डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

उद्धव ठाकरे की अमर्यादित आकांक्षा पूरी हो चुकी है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों की सूची में उनका शुमार हो चुका है। यह बात अलग है कि उन्हें शासन के धृतराष्ट्र के रूप में याद किया जाएगा। बाला साहब ठाकरे की विरासत को रौंदते हुए वह मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। यह बात अलग है कि उत्तराधिकार में मिली राजनीतिक विरासत के अतिरिक्त उनके पास कुछ नहीं था। यही उनकी पहचान थी। यही उनकी विशेषता थी। वह मुख्यमंत्री तो बन गए थे, लेकिन अपनी विश्वसनीयता को पूरी तरह गंवा चुके हैं। यह प्रकरण क्षेत्रीय दलों के लिए भी एक सबक बन गया है। क्षेत्रीय दलों का संचालन राजतंत्र के अंदाज में होता है। इसमें भी युवराज होते हैं। समय आने पर इनका ही राजतिलक होता है। इसमें भी अपने पिता को अपदस्थ कर पूरी पार्टी पर नियंत्रण कर लेने का भी उदाहरण है। कुछ समय एक नया ट्रेड चला है। यदि कोई भाजपा सरकार की तारीफ कर दे तो उसे भक्त घोषित कर दिया जाता है। जबकि वास्तविक भक्त तो परिवार आधारित दलों में होते हैं। यहां आंख मूंद कर युवराज की जय जयकार होती है। उसकी योग्यता क्षमता से किसी को मतलब नहीं होता है। इसी नियम के अंतर्गत उद्धव को बाल ठाकरे की विरासत मिली थी।

संजय राउत जैसे लोगों को मुख्य सलाहकार उद्धव ने खुद बनाया था। परिणाम सामने है। सत्ता और पार्टी दोनों हाथ से निकलते दिख रहे हैं। विद्रोह आंतरिक है। यही परिवार आधारित दलों के लिए सबक है। जय जयकार की भी एक सीमा होती है। उस सीमा के बाद धैर्य जवाब देने लगता है। विद्रोह करने वाले अपने को बालासाहब ठाकरे का सच्चा अनुयायी बता रहे हैं। उनका कहना है कि वह उद्धव की तरह हिन्दुत्व की विचारधारा का परित्याग नहीं कर सकते। सेक्युलर सरकार के नाम पर बेहिसाब भ्रष्टाचार होता रहा। शिवसेना का गठन तुष्टीकरण के लिए नहीं हुआ था। कुर्सी के लिए उद्धव ठाकरे कांग्रेस और एनसीपी के इशारों पर चल रहे थे। इसमें बालासाहब ठाकरे के विचारों का कोई महत्व नहीं रह गया था। उद्धव ने शिवसेना को उस मुकाम पर पहुंचा दिया था जहां वह पूरी तरह कांग्रेस और एनसीपी की बी टीम बन कर रह गई थी। बालासाहब से प्रेरणा लेकर राजनीति करने वालों के लिए यह स्थिति असहनीय थी। उनके संख्या बल से स्पष्ट है कि उद्धव के विरुद्ध किस हद तक नाराजगी है।

भाजपा ने भी गठबंधन सरकार चलाने के लिए अपने कोर मुद्दों पर जोर न देना स्वीकार किया था। लेकिन उसने इन मुद्दों को कभी नहीं छोड़ा। भाजपा ने सदैव कहा कि यह उसकी आस्था के मुद्दे हैं। जब भी वह इनपर अमल की क्षमता में होगी, उसे पूरा किया जाएगा। भाजपा ने इसे पूरा करके दिखा दिया है। अनुच्छेद 370, 35 ए, तीन तलाक पर रोक, राम मंदिर निर्माण आदि ऐसे ही मुद्दे थे। भाजपा के सक्षम होते ही इन्हें अंजाम तक पहुंचाया गया। लेकिन कमजोर होने के बाद भी भाजपा ने कभी कांग्रेस के सामने समर्पण नहीं किया था। जबकि उद्धव ठाकरे कमजोर संख्याबल के बाद कांग्रेस और एनसीपी की शरण मे चले गए थे। बाला साहब ठाकरे ने कांग्रेस की तुष्टिकरण नीतियों के जवाब में शिवसेना की स्थापना की थी। वह सदैव हिंदुत्व के मुद्दों को मुखरता से उठाते रहे। उन्होंने स्वयं सत्ता में जाना स्वीकार नहीं किया। भाजपा के साथ गठबंधन के बाद शिवसेना का आधार भी व्यापक हुआ था। जब पहली बार इस गठबंधन को सरकार बनाने का अवसर मिला तब बाला साहब को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव किया गया था। लेकिन उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। इसके बाद शिवसेना के मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बने थे।

उसी समय दो बातें तय हो गई थीं, पहली यह कि भाजपा और शिवसेना महाराष्ट्र के स्वभाविक साथी हैं। यह गठबंधन स्थायी रहेगा। दूसरी बात यह कि दोनों में जिस पार्टी के विधायक अधिक होंगे, उसी पार्टी को मुख्यमंत्री पद मिलेगा। बाला साहब ठाकरे ने कभी यह कल्पना नहीं कि होगी कि उनके उत्तराधिकारी मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए कांग्रेस और शरद पवार के पीछे चलते नजर आएंगे। यह सरकार अनैतिक ही नहीं, बल्कि संवैधानिक भावना का उल्लंघन करने वाली थी। भाजपा के साथ चुनाव लड़ना फिर स्वार्थ में चुनाव बाद गठबंधन से अलग हो जाना,अनैतिक था। क्योंकि इसका कोई सैद्धान्तिक या नीतिगत आधार नहीं था। भाजपा से करीब आधी संख्या कम होने के बाबजूद उद्धव खुद या अपने पुत्र को मुख्यमंत्री बनवाना चाहते थे। इस संदर्भ में हरियाणा और जम्मू-कश्मीर का उदाहरण दिया गया था। जम्मू-कश्मीर में भाजपा और पीडीपी ने एक-दूसरे के विरोध में चुनाव लड़ा था। बाद में दोनों ने गठबंधन सरकार बनाई थी। इसी प्रकार हरियाणा में भाजपा और दुष्यंत चौटाला की पार्टी ने एक-दूसरे के खिलाफ विधानसभा चुनाव लड़ा। बाद में इन्होंने भी मिल कर सरकार बनाई है। इन उदाहरणों से शिवसेना अपना बचाव नहीं कर सकती। जम्मू-कश्मीर में भाजपा ने सरकार बनाने में कोई जल्दीबाजी नहीं दिखाई थी। कांग्रेस,पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस को गठबन्धन सरकार पर विचार का पूरा अवसर मिला। लेकिन इनके बीच सहमति नहीं बन सकी। इसके बाद दो ही विकल्प थे। पहला यह कि पीडीपी व भाजपा के बीच गठबन्धन हो,दूसरा यह कि यहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। राष्ट्रपति शासन के बाद चुनाव में भी ज्यादा उलटफेर की संभावना नहीं थी। जम्मू क्षेत्र में भाजपा का वर्चस्व था। घाटी में कांग्रेस,पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस को लड़ना था। ऐसे में भाजपा और पीडीपी ने न्यूनतम साझा कर्यक्रम तैयार किया। फिर सरकार बनाई। पीडीपी की संख्या ज्यादा थी, इसलिए महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री बनी थीं। हरियाणा में भी किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी। दुष्यंत चौटाला ने समर्थन दिया। इस तरह बहुमत की सरकार कायम हुआ।

दूसरी ओर महाराष्ट्र में जनादेश बिल्कुल स्पष्ट था। मतदाताओं ने भाजपा के नेतृत्व में शिवसेना गठबन्धन को पूर्ण जनादेश दिया था। उद्धव का स्वार्थ जनादेश पर भारी पड़ा। उन्होंने मतदाताओं के फैसले का अपमान किया। इसके लिए उद्धव ने चुनाव पूर्व गठबन्धन को ठुकरा दिया। वह उन विरोधियों के पीछे दौड़ने लगे जिनकी नजर में शिवसेना साम्प्रदायिक थी। जबकि जनादेश भाजपा-शिवसेना गठबंधन की सरकार के लिए था। लेकिन उद्धव इस कदर बैचैन थे कि उन्हें कांग्रेस-एनसीपी की सच्चाई भी दिखाई नहीं दे रही थी। कांग्रेस की नजर में शिवसेना घोर साम्प्रदायिक और शिवसेना की नजर में कांग्रेस तुष्टिकरण की पार्टी रही है। दोनों की विरासत भी बिल्कुल अलग-अलग रही है।

शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे ने इसी आधार पर कांग्रेस का विरोध किया था। उन्होंने हिंदुत्व की प्रेरणा से शिवसेना की स्थापना की थी। शिवसेना को मुख्यमंत्री पद की सर्वाधिक कीमत चुकानी पड़ी। 56 सीट के साथ उसे मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली, जबकि उद्धव को मुख्यमंत्री बनाने वालों की संख्या 100 से अधिक थी। कांग्रेस और एनसीपी के सामने उद्धव आज्ञाकारी जैसा आचरण करते रहे। शिवसेना पर हिंदुत्व के एजेंडे को छोड़ने का दबाब बनाया गया था। उद्धव ने इसे शिरोधार्य किया ।अब इसी आधार पर शिवसेना में उद्धव विरोधियों का पलड़ा भारी हो गया है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

हिन्दुस्थान समाचार/ मुकुंद