नेपाल में हिंदू राष्ट्र और राजशाही की मांग: कितना संभव है बदलाव?

नेपाल, हिमालय की गोद में बसा वह देश, जो कभी दुनिया का एकमात्र हिंदू राष्ट्र था, आज फिर से चर्चा में है। 2008 में राजशाही खत्म होने और देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किए जाने के बाद, अब एक बार फिर हिंदू राष्ट्र और राजशाही की बहाली की मांग जोर पकड़ रही है। सड़कों पर उतरते लोग, नारे लगाती भीड़ और राजनीतिक दलों की बयानबाजी—क्या यह सब नेपाल को उसके पुराने स्वरूप में लौटा पाएगा? आइए, इस मांग की गहराई और इसकी ताकत को समझने की कोशिश करते हैं।
हिंदू राष्ट्र की मांग: इतिहास और वर्तमान
नेपाल की 80% से अधिक आबादी हिंदू है, और लंबे समय तक यह देश हिंदू धर्म के साथ अपनी पहचान बनाए रखने के लिए जाना जाता था। 2006 में माओवादी आंदोलन और राजनीतिक उथल-पुथल के बाद, 2008 में राजशाही समाप्त हो गई और नेपाल एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बन गया। लेकिन यह बदलाव सभी को स्वीकार्य नहीं था। राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (आरपीपी) जैसे संगठन और कई हिंदू समूह लंबे समय से हिंदू राष्ट्र की बहाली की वकालत करते रहे हैं। हाल के वर्षों में यह मांग और तेज हुई है, खासकर तब, जब राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार ने लोगों का भरोसा सरकारों से उठा दिया है। काठमांडू की सड़कों पर प्रदर्शनकारी "हिंदू राष्ट्र वापस लाओ" और "राजा, देश बचाओ" जैसे नारे लगाते देखे जा सकते हैं।
राजशाही की वापसी: कितना यथार्थवादी है?
2008 में राजा ज्ञानेंद्र शाह को सत्ता छोड़नी पड़ी थी, और तब से नेपाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू है। लेकिन 240 साल पुरानी राजशाही की यादें आज भी लोगों के दिलों में बसी हैं। कुछ लोग मानते हैं कि राजशाही के दौर में देश में स्थिरता थी, और राजा एक सांस्कृतिक संरक्षक की तरह थे, जो हिंदू धर्म को मजबूती दे सकते थे। राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी ने हाल ही में राजशाही बहाली के लिए 40 सूत्रीय मांगपत्र सरकार को सौंपा है। प्रदर्शनों में हजारों लोग शामिल हो रहे हैं, और पूर्व राजा ज्ञानेंद्र के समर्थन में भीड़ जुट रही है। लेकिन क्या यह मांग वास्तव में देश को पुराने दौर में ले जा सकती है? कई विश्लेषकों का मानना है कि लोकतंत्र की जड़ें अब गहरी हो चुकी हैं, और राजशाही की वापसी आसान नहीं होगी।
हिंदू संगठनों का प्रभाव: एकजुटता या बिखराव?
नेपाल में विश्व हिंदू महासंघ और हिंदू स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन हिंदू राष्ट्र की मांग को और हवा दे रहे हैं। ये संगठन मानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता ने नेपाल की सांस्कृतिक पहचान को कमजोर किया है। कुछ लोग यह भी तर्क देते हैं कि जब कई देश अपनी धार्मिक पहचान को गर्व से अपनाते हैं, तो नेपाल क्यों पीछे रहे? हालांकि, इन संगठनों के बीच एकजुटता की कमी एक बड़ी चुनौती है। अलग-अलग समूहों के अपने-अपने नेता और एजेंडे हैं, जिसके कारण कोई एक मजबूत नेतृत्व सामने नहीं आ पा रहा। फिर भी, ये संगठन युवाओं को आकर्षित करने में कामयाब रहे हैं, जो मौजूदा सरकारों से निराश हैं।
राजनीतिक अस्थिरता: मांग को बल देने वाला कारण
नेपाल में 2008 के बाद से 13 सरकारें बदल चुकी हैं। बार-बार बदलते गठबंधन, भ्रष्टाचार के आरोप और आर्थिक कमजोरी ने लोगों का भरोसा तोड़ा है। ऐसे में कई लोग मानते हैं कि राजशाही और हिंदू राष्ट्र की वापसी स्थिरता ला सकती है। नेपाली कांग्रेस जैसी मुख्यधारा की पार्टियां भी अब इस मुद्दे पर नरम रुख अपनाती दिख रही हैं। कुछ नेता जनमत संग्रह की मांग कर रहे हैं, ताकि लोग खुद तय कर सकें कि देश को धर्मनिरपेक्ष रहना चाहिए या हिंदू राष्ट्र बनना चाहिए। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियां और अन्य धर्मनिरपेक्ष समूह इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं।
क्या कहते हैं लोग?
नेपाल की सड़कों पर उतरने वाले प्रदर्शनकारी सिर्फ हिंदू राष्ट्र या राजशाही की बात नहीं करते, बल्कि वे अपनी रोजमर्रा की समस्याओं को भी उठाते हैं। बेरोजगारी, महंगाई और अवसरों की कमी ने युवाओं में असंतोष पैदा किया है। कुछ लोग मानते हैं कि राजशाही एक सांकेतिक संस्था के रूप में वापस आ सकती है, जो देश को एकजुट रखे। वहीं, दूसरों का कहना है कि धर्मनिरपेक्षता ने सभी धर्मों को बराबर का मौका दिया है, और हिंदू राष्ट्र की वापसी अल्पसंख्यकों के लिए ठीक नहीं होगी।
आगे का रास्ता: संभावनाएं और चुनौतियां
नेपाल में हिंदू राष्ट्र और राजशाही की मांग को नजरअंदाज करना मुश्किल है, लेकिन इसे हकीकत में बदलना आसान भी नहीं। संविधान में बदलाव के लिए दो-तिहाई बहुमत चाहिए, जो मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में एक बड़ी चुनौती है। साथ ही, अंतरराष्ट्रीय समुदाय और पड़ोसी देशों, खासकर भारत और चीन, की नजर भी इस घटनाक्रम पर है। भारत के साथ नेपाल के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्ते इस मांग को प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन क्या नेपाल फिर से हिंदू राष्ट्र बन पाएगा? यह सवाल अभी अनिश्चितता के घेरे में है।